......... नव वर्ष के स्वागत में हम अनेकों प्रकार से जश्न मानते हैं तथा एक-दूसरे को नव वर्ष का बधाई देते हैं। पर क्या सिर्फ बधाई भर दे देने मात्र से हमारा कर्तव्य पूरा हो जाता है? नव वर्ष के आगमन पर हम एक-दूसरे को बधाई व शुभ-कामना दें और फिर सालों भर अपने धर्म व कर्तव्य को भूल जाएँ, क्या यही मेरा कार्य होना चाहिए? ............
नव वर्ष के आगमन के साथ ही हम लग जाते हैं गणतंत्र दिवस मनाने की तैयारी में। अगले माह हम फिर गणतंत्र दिवस मनाएंगे। हम गणतंत्र की ५७ वीं वर्षगांठ में फिर तरह-तरह के कार्यक्रम आयोजित करेंगे व हजारों रुपये खर्च करेंगे। पर क्या हमने कभी सोचा है कि विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्रात्मक राज्य भारत में हम गणतंत्र दिवस पर हजारों-लाखों रुपये खर्च कर देते हैं पर भारत को गणतंत्र हुए आज ५७ वर्ष हो जाने पर भी आज भारत के जनता को न्याय नहीं मिल पाती है। न्याय मिलना तो दूर की बात, कभी-कभी तो लोगों को न्याय की मांग तक करने का अधिकार का हनन होता है। कभी-कभी तो अदालत द्वारा भी सही फैसला नहीं सुनाया जाता है और दोषी सजा-मुक्त हो जाता है तथा निर्दोष को सजा भुगतना पड़ता है। कुछ ही दिनों पहले की घटना में एक ऐसा ही उदाहरण मिलता है 'जेसिका लाल हत्याकांड' के मामला में; जिसमें हाईकोर्ट द्वारा जो फैसला सुनाया गया वह निचली अदालत के फैसले से पूर्णतः विपरीत था। जहाँ निचली अदालत ने 'मनु' को निर्दोष बताकर बरी कर दिया था वहीं उच्च न्यायालय ने 'मनु' को दोषी व हत्यारा बताकर उसे आजीवन कारावास की सजा सुनाई। ............. सोचें कि यदि निचली अदालत के फैसले व जांच पर रहा जाता तो क्या दोषी को सजा मिल पाती? सोचें कि आख़िर निचली अदालत द्वारा सच्चाई तक क्यों नहीं पहुँचा गया? ................ ऐसा एक नहीं कई मामला रहता है जिसमें अदालत द्वारा गलत फैसला सुनाया जाता है और दोषी आजाद रहता है व निर्दोष सजा भुगतता है। ............ सोचें कि आखिर किस मुँह से हम यह कहकर अपने को गौरवांवित महसूस करते हैं कि हम भारतीय गणतंत्र की ५७ वीं वर्षगांठ मना रहे हैं। -- सिर्फ दिखावा के लिए गणतंत्र दिवस मनाने का कोई औचित्य नहीं है। हमें ऐसी व्यवस्था करनी चाहिए कि हरेक व्यक्ति को न्याय मिले। ............. सिर्फ यह कहने मात्र से नहीं होगा कि सभी को न्याय पाने का अधिकार है बल्कि सबों के साथ न्याय करना भी होगा। - वास्तव में कितने लोगों को आज न्याय पाना तो दूर की बात उन्हें न्याय मांगने का भी अधिकार नहीं है और यदि वह न्याय की मांग किया तो उसके साथ और भी ज्यादा अन्याय होने लगता है। ......... और उसके साथ अन्याय जब चरम सीमा पर पहुंच जाती है, उसके साथ मानसिक प्रताड़ना इतनी आधिक हो जाती है कि ऐसी स्थिति में कभी-कभी पीड़ित विवश होकर हथियार को लेता को या फिर ऐसी ही स्थिति में कभी-कभी पीड़ित या तो आत्महत्या कर लेता है या या फिर अपराधी बन जाता या फिर मानसिक प्रताड़ना से जूझकर पागल हो जाता है। ..........
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(यह महेश कुमार वर्मा द्वारा २४.१२.२००६ को लिखे एक पत्र से लिया गया है।)
1 comment:
I think we are responsible for this more than the h'able court.
We as a society dont raise a voice against the crime.
Nobody speaks against the criminal but they jus keep mum. remain apathetic to the incidents. How court is suppose to take a decision?
yes I agree it takes lots of time for court to reach to a decision but that again is a fault of the system as a whole than of a particular pillar of system.
Once we became vigilant, all of this should reduce automatically
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