करता है ये छठ पर्व
चाहता है हजारों कामना
छठ करने के लिए
कितनी सारी व्यवस्था करता है
भगवान से हजारों कामना चाहता है
खरना करता है
उपवास रहता है
नदी जाता है
सूर्य को अर्ध्य देता है
ताकि उसकी मनोकामना पुरी हो
पर उसका नहाय-खाय
खरना, उपवास
व सूर्य को अर्ध्य देना
सब तब हो जाता है बेकार
जब छठ के तुरत बाद
वह भूल जाता है
अपने धर्म व कर्म को
और करता है
मुझपर बेवजह प्रहार
मैं ही नहीं
मेरे जैसे हजारो
बकरे मारे जाते है
छठ के पारण दिन
लेते हैं मनुष्य
बेवजह इनकी जान
नहीं है इन्हें अपने धर्म की पहचान
नहीं है इन्हें अपने धर्म की पहचान
मुर्ख मनुष्य
करके मेरा बध
छठ के अपने पुण्य को
ख़ुद मिटा देता है
और ले आता है
अपने खाते में
सिर्फ पाप ही पाप
इसीलिए तो नहीं करता है ये
कोई तरक्की
नहीं करता है, नहीं करेगा
कभी ये कोई तरक्की
ये फल है ख़ुद कर्म की उनकी
नहीं करेगा कभी ये कोई तरक्की
नहीं करेगा कभी ये कोई तरक्की
अरे मुर्ख व पापी मनुष्य
मेरी गलती मुझे बताओ
मेरा अपराध मझे बताओ
तुमने मुझे क्यों मारा
मुझ बेगुनाहों को क्यों रुलाया
मारकर मुझे तुम
तरक्की कर सकते नहीं
शांत तुम रह सकते नहीं
चैन से तू सो सकते नहीं
चैन से तू सो सकते नहीं
कहता है तुमसे ये बकरा
अपना भविष्य तुमने ख़ुद है उकेरा
अवश्य मिलेगा तुम्हें मुझे मारने का फल
जाएगा तुम्हारा सारा व्रत निष्फल
जाएगा तुम्हारा सारा व्रत निष्फल
-- महेश कुमार वर्मा
3 comments:
भाई क्या बात है, एक सची बात
धन्यवाद
राज जी, सच्ची बात लिखना कोई गुनाह नहीं है व दिल की आवाज़ में दिल की ही बात रहती है.
आएँ मांसाहार के विरुद्ध अभियान चलाकर जीव-हत्या बंद करें.
आपका
महेश
Mahesh ji hum bhi masanhaar ke ekdum virudh hain, bahut hi achchi kavita likhi aap ne
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