स्वैच्छिक मृत्यु का अधिकार क्यों नहीं?
मित्रों, आज हम स्वतंत्रता के 65वीं वर्षगाँठ मना रहे हैं। देश की स्थिति को देखते हुए इस मौके पर मुझे तो बहुत कुछ कहने की ईच्छा होती है पर क्या करूँ हमारे देश में व्यवस्था ऐसी हो गयी है कि बोलने का भी अधिकार नहीं रह गया है। आप खुद देखें कि हरेक जगह यह आलम है कि लोग निर्बल को दबा रहे हैं और पीड़ीत असहाय होने के कारण चुप रहता है और यदि वह अपने साथ हो रहे अन्याय के विरुद्ध आवाज उठाता है तो उसके साथ और भी कष्ट व शोषण होने लगता है तथा उसे न्याय भी नहीं मिलाता है। पीड़ीत न्याय के लिए कोर्ट व सरकारी दफ्तर का चक्कर लगा कर थक जाता है और उसे न्याय नहीं मिलती है। ऐसी स्थिति में कभी-कभी तो पीड़ीत मानसिक रूप से इतना प्रताड़ित होता है कि वह आत्महत्या तक कर बैठता है। वैसे आत्महत्या सही नहीं है। पर कोई भी यों ही शौक से आत्महत्या नहीं करता है बल्कि यदि कोई आत्महत्या करता है तो उसके आत्महत्या का कारण कोई और ही होता है। आत्महत्या करने वाले के पास जब कोई चारा नहीं बचता है तब ही वह ऐसा कदम उठाता है। आखिर वह करे भी क्या? उसे तो कुछ बोलने का भी अधिकार नहीं रह जाता है उसे न्याय पाने का भी अधिकार नहीं रह जाता है तो वह पीड़ीत करेगा भी क्या? जब उसके ऊपर हो रहे अन्याय से उसका जीना ही मुश्किल हो जाए व अन्याय उसे जीने में ही बाधा पहुंचाए तो वह आत्महत्या नहीं तो और क्या करेगा?
कभी सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार को इस बात के लिए फटकार लगाई थी की जब सरकार वेश्याप्रथा व देहव्यापार को बंद नहीं कर सकती है तो इसे अनुमति ही क्यों नहीं दे देती है? सुप्रीम कोर्ट का यह फटकार सही था। उसी तरह मैं सरकार व कानून व्यवस्था से पूछना चाहता हूँ कि जब सरकार पीड़ीत को न्याय नहीं दिला सकती है तो फिर उसे खुद लड़-झगड़ कर अपना फैसला करने का अधिकार क्यों नहीं दे देती है या फिर अन्याय से जब उसे जीना मुश्किल हो रहा हो तो उसे स्वेच्छिक मृत्यु का अधिकार क्यों नहीं दे देती है? मेरी यह बात लोगों को ख़राब लग सकता है पर यह बात सही है कि कई लोगों की आज स्थिति ऐसी ही है।
-- महेश कुमार वर्मा
-------------------------------------
6 comments:
कल 17/08/2012 को आपकी यह बेहतरीन पोस्ट http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
धन्यवाद!
सशक्त लेखन....
विचारणीय पोस्ट!!!!
सादर
अनु
बहुत बढ़िया मुद्दा उठाया है आपने ..............धन्यवाद
्विचारणीय
सच है राहों पर काँटों ने महफिल खूब सजाई है।
लेकिन कलियों को भी देखो, रुख पे शिकन न आई है।
आपकी पोस्ट से और उसमें उठे मुद्दों से पूर्णता सहमत हूँ.
Post a Comment